आज ठंढक कुछ ज्यादा ही है।कल शाम से ही शीतलहर चल रही है।लगता है आस-पास कहीं बर्फ गिरी हो।धूप का नामोनिशान नहीं-फूल पत्ते भी ठंढ से सिकुडे-सिकुडे से हैं।रमैया चूल्हे की राख से पतीले मांज रहा है।जल्दी-जल्दी हाथ चला रहा है…इतनी देर में तो पतीला झलमला उठता था…आज हाथ ही ठिठुरे –से हैं।राख भी गर्म नहीं।सप्लाई वाले नलके का पानी भी और दिनों की तरह गुनगुना नहीं है।जो भी हो,रमैया को इस दिन का इंतजार कब से था।पिछली बार जब नया साल आया था तो सामने वाले हीरो-होन्डा के शो रूम में कैसी गहमा –गहमी थी !सबेरे सबेरे परात भर गर्म गर्म जलेबियां आई थीं।शो-रूम का वाचमैन रमैया को बहुत मानता है। अपने छोटे भाई के पुराने कपडे भी लाकर देता है।अभी जाडा शुरु भी नहीं हुआ,एक पूरी बांह का स्वेटर लाकर दे गया। हफ्ता भर पहले एक जोडी चप्पल भी लेता आया था। वाचमैन भला आदमी है। उसी ने उस दिन बुलाकर उसे जलेबियां दी थीं…।एक बार नहीं,दो-दो बार ।
रमैया अपने मां-बाप का एकलौता बेटा है। 8-9 साल की उमर होगी। दो साल पहले उसके बाबा ने उसे एक मैनेजर साहब के घर रखवा दिया था। साहब,मेम साहब दोनों रमैया को खूब प्यार करते थे। उनके बच्चे भी कभी उससे जोर से नहीं बोलते थे।मजे से दिन कट रहे थे।साहब की बेटी कभी –कभी उसे पढ़ाया भी करती थी॥ अपना नाम लिखना रमैया ने उसी से सीखा है।लेकिन साहब लोगों की नौकरी भी बदलती रहती है। अब उनकी बदली किसी दूसरे शहर में हो गई है। जाने से पहले घर में खुशियां मनाई गईं,पार्टियां हुईं।जितना उसकी समझ में आया,उसका मतलब तो यही था कि साहब और बडे साहब बन गए थे। लेकिन रमैया का बसा-बसाया घर छूट गया। साहब तो चाहते थे कि वह भी साथ जाए,लेकिन बाबा तैयार नहीं हुए,कहने लगे-एक ही तो बेटा है। आंखों के सामने रहे तो ठीक रहेगा। दूर चला जाएगा तो इसकी अम्मा उदास होगी। ठीक ही तो कहते हैं बाबा,वह अब बडा हो गया है—होशियार भी।मां-बाप का हाथ बंटाएगा।सब्जी-भाजी खरीद कर लाएगा॥ नलके से पानी लाएगा,पतीले धोने में अम्मा की मदद करेगा। और सचमुच रमैया बहुत मेहनती लडका है।उसके बाबा की छोटी-सी गुमटी में दिन भर खाने वालों का तांता लगा रहता है।20-25 रिक्शावाले प्रतिदिन उसकी गुमटी पर खाना खाते हैं।आस-पास के छोटे दुकानदार भी उसी की गुमटी पर खाना पसंद करते हैं। कुछ तो रिक्शा स्टैंड के पास होने से उनके लिए यहां खाना सहज सुलभ है…कुछ अम्मा के हाथों के बने साफ –स्वच्छ खाने का स्वाद उन्हें खींच लाता है। हर दिन ताजी हरी सब्जियां खरीद कर लाता है रमैया। खूब मेहनत से काट-बीनकर बनाती है अम्मा। कभी-कभी छोटी-छोटी मछलियां भी पकाती है। उस दिन खूब बिक्री होती है। दूर तक मछली की खुशबू फैली होती है।
गुमटी के ठीक बगल में प्रदीप चाय वाले की दुकान है।प्रदीप तो छोटे भाई की तरह मानता है रमैया को। जब भी चाय की दुकान पर भीड होती,रमैया दौडकर पहुंच जाता है मदद को। जल्दी-जल्दी ग्लास धो-धोकर देता है प्रदीप भैया को। कभी दौडकर पानी भी ला देता है। चाय की केतली और 6-7 ग्लास लेकर सामने वाले शो-रूम में तो वही जाता है दिन भर ।प्रदीप भैया कभी कभी कुछ पैसे भी दिया करते हैं उसे।
गुमटी की दूसरी तरफ सिरधर साइकिल वाले की दुकान हैवहां तो हर वक्त जमघट –सी रहती है। पास के मोहल्ले में 2-3 कोचिंग सेंटर हैं।दिनभर लडके-लडकियां साइकिलों पर सवार आते-जाते रहते हैं। अपनी साइकिलें लेकर लडकियां जब डग-मग करती हुई सिरधर की दुकान पर पहुंचती हैं तो रमैया दौडकर पहुंच जाता है। कभी पम्प से हवा भरने में कभी साइकिल पकडकर खडे रहने में उनकी मदद करता है। उसे ताज्जुब होता है कि पतली-दुबली लडकियां साइकिल संभाल कैसे पाती हैं !जो भी हो,लडकियां रमैया को बहुत मानती हैं।कोई-कोई कभी कभार उसे चाकलेट भी दिया करती है। लजाते-शर्माते रमैया लेता भी है और मजे से खाता भी है। सच तो यह है कि उसे भी इनका इंतजार रहने लगा है। छुट्टियों वाले दिन उसे अच्छे नहीं लगते। उस दिन न तो प्रदीप की दुकान पर भीड होती है न ही सिरधर की दुकान पर…।
ऐसी कितनी ही बातें रमैया के नन्हे से जेहन में आ-जा रही हैं। और छोटे-छोटे कोमल हाथ जिनमें स्लेट-पेन्सिल होने चाहिये थे,किताबें होनी चाहिए थीं…पतीले मांज रहे हैं।गरीब होना भी गुनाह है क्या??
धीरे-धीरे दिन निकल आया।मुंह –हाथ धोकर रमैया आया तो सोचने लगा---पिछले साल इस समय तक तो जलेबियां आ भी गई थीं और बंट भी गई थीं सामने वाले शो-रूम में । वह उदास हो चला…।
मन-ही-मन भगवान से मनाने लगा कि जल्दी से भेजो न भगवान,गर्म जलेबियां !कभी सोचता कि अभी ही आ जाए,कभी सोचता-नहीं थोडी देर बाद आए। अभी वाचमैन भैया नहीं आए…कहीं जलेबियां आईं और खत्म भी हो गईं,तो ? कौन देगा उसे बुलाकर ?
वाचमैन भैया भी आज न जाने क्यों नहीं आए अभी तक।पता नहीं क्या बात है…कौन जाने परिवार वालों के साथ कहीं घूमने –घामने ही गए हों।
अभी दो-तीन दिन पहले जब वह कपडे धोकर सुखा रहा था तो बाबा ने पूछा-क्या बात है…बडा मन लगाकर धो रहा है कपडे !वह हंसकर रह गया था।लेकिन जब अम्मा ने वही बात पूछी तो वह उसके गले में बांहें डालकर झूल गया…कान में धीरे से कहा—नए साल में पहनूंगा॥
पर नए साल का इंतजार उसका बाल-मन क्यों कर रहा है,यह तो वही जानता है।
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया-रमैया को रोना आने लगा।वह मायूस हो गया।सूनी आंखों से शो-रूम की तरफ देखता।ठंढक आज ज्यादा थी,शायद इसीलिए खाली-खाली-सा था शो-रूम।पर जलेबियां तो आनी चाहिए थीं !!
प्रदीप की आवाज सुनकर भी रमैया नहीं गया।सिरधर की पुकार भी अनसुनी कर गया।धुले हुए कपडे पहनने का भी मन नहीं हुआ। अनमना –सा आकर चूल्हे के बगल में चुपचाप बैठ गया।
अम्मा रोज की तरह सब्जियां काट रही थी।रमैया को बुलाया तो उसने बिना चेहरा उठाए हुंकारी भर दी। उठकर आया नहीं।बाबा ने गौर से बेटे का चेहरा देखा और उठकर कहीं चल दिए।
रमैया चुपचाप सिर झुकाए सामने जमीन पर उंगली से आडी-तिरछी लकीरें खींचता रहा।थोडी ही देर बाद बाबा लौट आए।आते ही रमैया के हाथों में कागज का एक ठोंगा थमाया और दोनों गाल थप-थपाकर भीतर चले गए।
अम्मा ने जरा-सी नजरें उठाईऔर मुस्कुराकर रमैया को देखने लगी।ठोंगा खोलते ही रमैया खिल उठा…।बाल सुलभ चंचलता उसके चेहरे पर दौड गई। गर्म-गर्म जलेबियां थीं –ठोंगे में॥रमैया दौडकर अम्मा के गले से झूल गया।यही उसके दुलार जताने का अपना अंदाज था !!!
Bahut bahut sundar,itna kahna kaafi nahi,jaanta hun,par jyaada kahna jaanta nahi.
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