जय बाबा बर्फानी---बड़ी ही शुभ घड़ी थी जब हमने अनायास अमरनाथ की यात्रा की योजना बना डाली.।हम स्टेट बैंक हजारीबाग शाखा के 10 सदस्य युनाइटेड बैंक के 2 तथा 2 अन्य ,कुल मिलाकर 14 सदस्यों की टोली जिसमें हम दोनों पति-पत्नी भी शामिल थे , 22/06/2008 को बड़काकाना रेलवे स्टेशन पर टाटा-जम्मू तवी के इंतजार में खड़े थे ।लगभग 40 घंटे के सफर के बाद हम 24/06/08 को जम्मू पहुंचे। पर्यटक स्वागत केन्द्र में दोपहर विश्राम के बाद हमलोग शाम को रघुनाथ मंदिर गए। मंदिर के विस्तृत परिसर में श्री राम जानकी की सुन्दर प्रतिमायें हैं।साथ में स्फटिक एवं ग्रेफाइट के विशाल शिवलिंग तथा अनेकों देवी –देवताओं की पिण्ड स्वरूप स्थापना मंदिर को भव्य और दर्शनीय बनाती है। हम संध्या आरती में भी शामिल हुए।
सबेरे हमारी यात्रा सुमो के द्वारा पहलगाम के लिए शुरु हुई।जम्मू से पहलगाम 270 कि.मी. की दूरी पर है।यह यात्रा बड़ी ही सुखद थी।हर तरफ हरियाली,ऊँचे –ऊँचे पर्वत और तवी नदी की साथ-साथ बहती हुई वेगवती धारा।पर्वत से उतरकर नीचे नदी तक असंख्य छोटी-छोटी धाराएं आती हैं जो साथ मिलकर मचलती हुई,पत्थरों से टकराती राह बनाती लगातार साथ साथ बहती रहती हैं।प्रकृति अपने सभी रूपों में नयनाभिराम होती है।बात चाहे पर्वतों की हो या नदियों झरनों की,पेड़ पौधों की हो या सुबह शाम की मनोहारी छटा की ,सभी अद्वितीय लगते हैं।
हम ऊधमपुर होते हुए पाटनी टॉप पहुँचे। पाटनी टॉप बादलों से ढंका एक छोटा परंतु अत्यंत खूबसूरत हिल स्टेशन है।यहाँ से गुजरते हमारे बदन को भी बादलों ने नरमी से छुआ।आगे बढ़ने पर कुद से हमने सोहन पापड़ी सरीखी एक स्वादिष्ट मिठाई (पत्तीसा) खरीदी । रास्ते भर पर्वत पर पाए जाए वाले फलों का स्वाद चखते ,स्थानीय लोगों की वेश-भूषा का अवलोकन करते ,बनिहाल दर्रे से गुजरकर हम जवाहर सुरंग के पास पहुंचे।पौने तीन किलोमीटर लम्बी यह सुरंग पहाड़ों को काट कर बनी अब तक की सबसे लम्बीसुरंग है।भीतर घुप्प अंधेरा ,गाड़ियाँ बत्ती जला कर साँस रोके चुपचाप गुजरती हैं।हर तरफ सैनिकों की चुस्त निगाहों का एहसास होता रहा।यहाँ से अनंत नाग होते हुए हम पहलगाम पँहुचे।
शाम होते-होते हम पहलगाम की धरती पर थे। लिद्दर नदी की धारा को छूकर आती ठंढी हवा बदन में ताजगी का संचार कर रही थी।यहाँ अनेक लंगरों की व्यवस्था थी। भजन कीर्तन के स्वरों के साथ गरमा-गरम भोजन ,पकवान मिठाईयां सभी कुछ उपलब्ध थे।यात्रियों का जत्था पहुँचता जा रहा था,हर तरफ चहल-पहल व्याप्त थी।यहाँ यात्रियों के लिये केसर मिले दूध की भी व्यवस्था थी जो शरीर को गर्म रखने और थकान उतारने में मदद करता है।हम तम्बुओं में ठहरे।तंबुओं में कम्बल रजाइयां मामूली शुल्क पर उपलब्ध थे।सबेरे नहा धो कर हम यात्रा के लिए तैयार होकर हल्के नाश्ते के बाद चल पड़े।पहलगाम से चंदन बाड़ी की दूरी 16 किलोमीटर है।छोटी –छोटी गाड़ियाँ लगातार यात्रियों को गंतव्य तक पँहुचाती रहती हैं।रास्ते भर पर्वत की दुर्गम चढाई का रोमाँच होता रहा।पतली,संकरी इकहरी सड़कें सीधी खड़ी चढाई पर चढती हुई और ठीक नीचे बहती लिद्दर नदी की धारा।प्रकृति की हरी भरी रूप सज्जा का दर्शन करते रोमांचित होते हमारी यात्रा जारी रही।कभी हमारी गाड़ी सड़क के एकदम किनारे को छूकर गुजरती तो मन सिहर उठता ।भगवान न करें ,कुछ अनहोनी हो ही गई तो हम सीधे हजारों फीट नीचे नदी की धारा में सैर करते नजर आएंगे।ख्याल आता-हमें मौत से शायद डर न लगे पर जिन्दगी का मोह नहीं छूटता।घर याद आता,बच्चे याद आते। हे शिव ! हम तुम्हारी शरण में हैं।
चंदनबाड़ी में सजी हुई अनेकों दुकानें थीं जिनमें यात्रा की जरूरतों का हर सामान उपलब्ध था।हमने सामान ढोने लके लिए किराए पर पिट्ठू लिए।सहारे के लिए हाथ में लाठियाँ लीं जिनमें नीचे की तरफ लोहे टँके थे जो रास्ते भर हमारे कदमों को सहारा देते रहे ,फिसलन भरी राहों पर सम्भालते रहे ।हमारी पीठ पर छोटे छोटे बैग थे जिनमें जरूरत के सामान बरसाती,जैकेट,गर्म कपड़े ,मफलर टॉर्च और दवाईयाँ थी.।हजारों यात्रियों का यह जत्था बाबा बर्फानी के जयघोष के साथ मन में अपार ताकत और साहस भरता हुआ नदी की धाराओं को छूते ,उनमें घुली-मिली संजीवनी का रसपान करते चल पड़ा और शुरु हो गई शिव की महिमा मंडित पर्वत शिखरों की छटा और खुल कर किलकती छलकती नदी का पावन स्वरुप तथा पूरे यौवन के निखार के साथ खिली-खिली प्रकृति के रुप का रसपान ।आँखें नहीं थकती थी.जिधर भी नजरें उठी,सुन्दरता ही सुन्दरता ।साथ में पर्वतारोहण का रोमांच एवं धर्मस्थली की पावन यात्रा का सुखद संयोग और सब से बढकर हमारी टोली जिसका हर सदस्य आपसी सहयोग और स्नेह की भावना से बंधा एक दूसरे का ख्याल करता हँसता बतियाता चलता रहा।
“जय भोले”—पास से कोई घुड़सवार जयकार करता गुजरता और सभी एक साथ जबाब देते जय भोले,जय बाबा बर्फानी।अपार आनन्द ।असीम हर्ष ।हम लोग पिस्सू टॉप की ओर बढ रहे थे ।जैसा कि नाम से विदित है पिस्सू टॉप की चढाई इतनी सीधी और खड़ी है कि पिस्सू की भाँति सरक कर ही चला जा सकता है |धीरे-धीरे सधे और छोटे कदमों से चलकर हम लंगर तक पहुँचे ।यहाँ का माहौल बड़ा आह्लाद कारी था ।गीत-संगीत की धुन पर थिरकते ,नृत्य करते भक्तों की टोली जो घड़ी दो घड़ी थिरक कर अपने पाँव की थकान मिटाते और मस्त होते हैं ,यह नृत्य जहाँ थके पाँव के लिए व्यायाम का काम करता है वहीं यात्री गण नई ताजगी एवं स्फूर्ति का संचार पाकर आगे चल पड़ते हैं।हल्का भोजन लेकर हमलोग आगे चल पड़ॆ आज की हमारी यात्रा 14 किलोमीटर की थी।
हम शेषनाग झील की तरफ बढ रहे थे ।पर्वतों की दिनचर्या कुछ अलग होती है आठ बजे तक उजाला व्याप्त रहता है।शाम की घड़ियां थोड़ी ही होती हैं अचानक धुंधलका बिखरने लगता है।
“अमरनाथ”भगवान शिव की उपाधि है यही नाम उस पर्वतीय स्थान को भी दियागया जहाँ पवित्र गुफा में मई –जून के महीने में प्राकृतिक रूप से बर्फ के शिवलिंग की आकृति तैयार हो जाती है ,जिसके दर्शनार्थ हजारों लाखों श्रद्धालु नदी-पर्वत लांघते राह की कठिनाईयों को झेलते धूप, वर्षा सहते चले आते हैं।जिनकी श्रद्धा ,आस्था और भक्ति इस आकृति को शिव का स्वरूप प्रदान करती है।प्रचलित कथा है कि भगवान शिव से माता पार्वती अमरत्व प्राप्त कराने वाली अमर कथा सुनाने की जिद्द कर बैठीं।भगवान माता को लेकर ऊँचे हिमालय की तरफ चल पड़े सबसे पहले रास्ते में शेषनाग को एक झील में छोड़कर वे आगे बढे यही शेषनाग झील है।किंवदंती है कि कभी-कभी इस विशाल गहरे झील के ठहरे हुए पानी में हलचल सी होती है।शायद शेषनाग की तंद्रा तब टूटती होगी और वे करवट बदलने का प्रयास किया करते होंगे।बहरहाल हमें ऐसी कोई हलचल नहीं दिखाई दी। शांत कज्जल पानी निगाहों को हटने की इजाजत ही नहीं देता।
कथा है कि शेषनाग झील से आगे बढने पर पंचतरणी की पावन धारा ने शिव पार्वती के चरण पखारे।पवित्र गुफा में पहुँचकर भगवान तो मृग छाल बिछा कर बैठ गए और भवानी आधा लेट कर कथा सुनने लगीं।सुनते-सुनते उन्हें नींद आ गई।कबूतरों का एक जोड़ा चुप-चाप बैठा कथा सुनता रहा और साथ में हूँ –हूँ की हुंकारी भी भरता रहा। कहते हैं कि यही कबूतर अमर कथा सुनकर अमर हो गए ऐसा न होता तो 14000 फीट की ऊँचाई पर इतने ठंढे वातावरण में जहाँ अन्य कोई भी पशु पक्षी नहीं मिलते ,गुफा और उसके इर्द गिर्द ये कैसे दिखाई देते.?शेषनाग पहुँचते पहुँचते रात घिर आई हमने तंबुओं में विश्राम किया और सुबह हम जब जागे तो आँखें फटी की फटी रह गईं।लगा रात भर बर्फ की बारिश होती रही हो ,हर तरफ बर्फ ही बर्फ ।बर्फीली चादर ओढेपर्वत और उनपर पड़ती सूर्य की सुनहरी किरणें-स्वर्गिक नजारा,अपार सौंदर्य ।सामने त्रिशूल पर्वत दिखाई दे रहे थे । त्रिशूल के आकार के तीन शिखर जिनपर बर्फ जमी हुई थी।
शिव की उपस्थिति का एहसास दिलाते हुए ये नजारे मन को आनन्द लोक की सैर करा रहे थे। हम इस सुख का आँखों से,रोम –रोम से अनुभव करते पंचतरणी की तरफ बढ चले।पहाड़ों का मौसम,अभी –अभी खिली हुई धूप थी.न जाने कहाँ से बादल उड़ते चले आए और देखते ही देखते सभी पर्वत बादलों की ओट में आ गए।बादल घनीभूत हुए और बारिश होने लगी।पानी की ठंढी बूंदें ,हवा और पर्वत की राह---फिर थोड़ी ही देर में धूप निकल आई।आज की चढाई थोड़ी कठिन थी.हम पूरी चढाई के सबसे उच्चतम शिखर महागुनस टॉप की ओर जा रहे थे।इसे गणेश टोप के नाम से भी जाना जाता है।कथा केअनुसार यहीं श्री गणेश जी को छोड़कर शिव-पार्वती आगे बढ गए थे।यहाँ ऊँचाई 14500फीट है।यहाँ हवा भी थोड़ी विरल है।आक्सीजन की मात्रा की कमी से थोड़ी थकान हो आई।हमारे कुछ साथी तो आगे बढ गए थे।हमारी साँसें फूलने लगीं ।हमारे साथियों में से एक ने छोटा आक्सीजन सिलिंडर साथ रख लिया थाजो हमारे साथ साथ ही चल रहे थे,वे पहले भी यात्रा कर चुके थे।शायद उन्हें हमारे लिए ऐसी आशंका भी मन में रही हो।
हम 2-2 मिनट आक्सीजन का सेवन कर आगे पोषपत्री पहुँचे।यहाँ पहुँचते पहुँचते मौसम खराब होने लगा।हवा चलने लगी और बूँदा बाँदी शुरु हो गई।हमारे आठ साथी आगे निकल गए थे।पहाड़ पर चढने के बाद से ही हमारे मोबाईल फोन की सेवा समाप्त हो गई थी।आपस में कोई सम्पर्क नहीं बन पा रहा था।हमने मिलकर तय किया कि दो साथी आगे बढकर टोली के पास पहुँचे और शेष चार जिनमें हम पति-पत्नी भी थे यहीं विश्राम करें।हम पोषपत्री के विशाल लंगर में ठहरे। यहाँ की व्यवस्था तो देखते ही बनती थी।शिवसेवक सेवा दल दिल्ली का लंगर था। हजारों की संख्या में कम्बल ,जूते ,जैकेट दवाएं भोजन सभी कुछ। साथ में सेना का सख्त पहरा।पूरी यात्रा के दौरान चप्पे-चप्पे में हमारे सैनिकों की उपस्थिति का वर्णन नहीं करना घोर अपराध होगा।हमने जिधर भी निगाह उठाई हमारे सैनिक धूप,वर्षा ,खराब मौसम की परवाह किए बगैर मुस्तैदी से तैनात मिले।यात्रियों का हर कदम हमारे सैनिकों का ऋणी है। उनकी बदौलत ही यात्रा सम्भव हो पाती है। इन दुर्गम चढाईयों में हजारों लाखों यात्री उनकी मदद से ही यात्रा कर पाते हैं,जो यात्रा शुरु होने के पहले से ही बर्फ की चादर काट-काट कर हमारे लिए रास्तातैयार करते हैं।प्रत्येक यात्री पर उनकी निगाह रहती है,कहीं कोई मुसीबत में न फँसे।कभी किसी बच्चे को गोद में उठाकर चढाई पार कराते कभी किसी बुजुर्ग को सहारा देकर ले जाते,आँखें भर आतीं।हमारे ये सैनिक अपने बाल-बच्चों,परिवार से दूर इतनी ऊँचाई पर हमारे लिए कितना कष्ट उठाते हैं।उन्हें शत-शत नमन।
मौसम में जरा भेए सुधार नहीं हुआ ,दूसरे दिन दोपहर एक बजे तक झमाझम बारिश होती रही॥रास्ते फिसलन भरे और कठिन हो चले।यहां यह बता दूं कि सफर आप पैदल तो तय करते ही हैंचाहें तो घोडा या पालकी भी ले सकते हैं,जो बहुतायत से उपलब्ध रहते हैं।लगभग 2 बजे यात्रा आरम्भ करने की सूचना मिली। हम जय भोले कहकर सैनिकों और सेवा दल के सदस्यों से विदा लिए।टेढे-मेढे गीले रास्तों पर चलते नदी की अनेक धाराओं को पार करते हम पंचतरणी की तरफ बढ चले।बारिश के बाद प्रकृति का धुला-धुला रूप बहुत ही मनमोहक होता है।इस अद्वितीय सौंदर्य का अवलोकन करते हम चलते रहे। आज हमने 6 किलोमीटर की यात्रा कीऔर पंचतरणी पहुंचे,जहां हमारे 2 साथी हमारा इंतजार कर रहे थे,शेष सभी आगे की यात्रा पर चल पडे थे, हमें सकुशल देखकर उनके चेहरे खिल उठे।इन दुर्गम रास्तों पर कहीं भी कुछ भी अनहोनी तो हो ही सकती है।मन तो मन है अच्छी बुरी आशंकाओं से घिरा रहता ही है।पंचतरणी नदी कहीं कहीं बर्फ से ढकी ,कहीं धीमी,कहीं मचलती,हुंकारती।ठंढा बर्फ का पानी-छू कर लगता उंगलियां जम जाएंगी।
कहते हैं यहां भगवान की जटाओं से भगीरथ गंगा पांच धाराओं के रूप में निकली थी। इन्हीं पांच पावन धाराओं को साथ लेकर चलती,यह पर्वतों की रानी अद्भुत सौंदर्य बिखेरती चलती है। पंचतरणी के ठीक बगल में ही लंगर की व्यवस्था थी।इन लंगरों में दवा और चिकिस्ता की भी सुविधा होती है,फिर भी यात्री छोटी मोटी दवाएं साथ लेकर ही चलते हैं।रात्रि विश्राम के बाद हम सबेरे अमरनाथ की गुफा की ओर निकल पडे। पतले दुर्गम रास्तों पर कतारबद्ध हजारों यात्री रंग बिरंगे कपडों में सुसज्जित, जिनमें बुजुर्ग बच्चे अपाहिज सभी शामिल थे। ह्र्दय की धडकनों में शिवमय जगत की वास्तविकता को महसूस करतेजय भोले,जय बम भोले के जयघोष के साथ लगातार चलते रहे। हमारा काफिला 10 बजते बजते पवित्र गुफा के समीप आ पहुंचा।यहां तंबुओं की व्यवस्था थी। चारों तरफ सजी हुई रंग बिरंगी दुकानें थी।और एकदम सटकर बहती हुई अमरावती नदी की धारा॥जो नि:संदेह शिव के चरणों को धोकर चली आ रही थी,अन्यथा इतना न इतराती…अमरावती की निर्मल धारा में स्नान कर साप्फ़ स्वच्छ कपडों में हाथ में बेलपत्र पुष्प प्रसाद लेकर हम दर्शन को चल पडे।एक डेढ किलोमीटर की सीधी खडी चढाई को पार कर हम सीढियों तक पहुंचे।लगभग 600 सीढियां हैं। (यहां सीढियों तक हेलिकाप्टर सर्विस भी उपलब्ध है आप चाहें तो बाल टाल से सीधे गुफा तक 5-7 मिनट में मात्र 3200/= में आ सकते हैं । पर यात्रा का आनन्द तो अपने पांव पर चल कर आने में ही है और प्रकृति का सौंदर्य भी खुले आसमान तले चलकर ही प्राप्त होगा) सीढियां चौडी और करीने से बनी हुई हैं।
यहां से पूरी व्यवस्था सैनिकों के हाथ में है। कतार बनाकर यात्री आराम से दर्शन करते और वापस चले आते हैं।कहीं कोई अव्यवस्था नहीं,कोई हडबडी,ठेलमठेल नहीं…सब कुछ सधा और संयत।ऊपर मंदिर से लगातार घंटियों की आवाज आ रही थी॥आंखें दर्शन को आतुर हो रही थीं॥पंचतरणी से गुफा की तरफ आते व्क्त हमें रास्ते में एक बुजुर्ग सैनिक मिले थे जो दर्शन कर लौट रहे थे ,उन्होंने हमसे कहा था कि आप बहुत भाग्यशाली हैं जो ऐसे समय में आए।1941 के बाद लगभग 67 वर्षों के अंतराल पर शिव अपनी पूरी कलाओं के साथ बिराजमान हैं॥पूरा का पूरा दरबार सजा है,भगवान तो हैं ही,माता पार्वती,श्री गणेश और नन्दी भी बिराजे हुए हैं।मन तभी से पंख लगा कर उडा आ रहा था।पांव दुगुने उत्साह से बढ रहे थे। गुफा के द्वार तक पहुंचते पहुंचते हम अपने आप को भूल गए।कतार बद्ध होकर हम गुफा में प्रवेश करने लगे।घंटियों की मीठी आवाज से भगवान को जगातेहुए,पुकारते हुए हम धडकते ह्र्दय और उन्मत्त कदमों से आगे बढते रहे।
ठीक सामने शिवलिंग की लगभग 11 फीट ऊंची आकृति दीख पडी॥क्रपा बाबा बर्फानी।साकार शिव के साक्षात दर्शन।रोम रोम सिहर उठा।शत नमन शिव !शत नमन परमेश्वर !!अद्रश्य नजरों से सारे संसार को निहारते शंकर भगवान॥मन एकाएक शांत हो गया।मीठे एहसास और अपूर्व संतोष की अनुभूति हुई।
शिव जी की दाईं तरफ पत्थरों के नीचे कुशल मूर्तिकार के हाथों तराशी गई मूर्ति की भांति सूंड की आकृति —बर्फ की बनी-इतनी स्पष्ट !इतनी सुन्दर !!श्री गणेश यह तो तुम हो !आंखें छलक आईं।थोडा आगे नजर गई तो देखा माता पार्वती की लगभग तीन फीट ऊंची बर्फ की आकृति ,अधलेटी सी,जरा सा पांव पसारे हुए।लगा अभी अभी सोई हों। ऐसा ही तो है कथा का स्वरूप-वह कथा सुनते सुनते सो गई थीं॥उनके पांव के समीप ही लगभग 4-5 फीट लम्बी आकृति —दो पांव चट्टान पर लटके हुए—पीठ जरा ऊंची---नन्दी की प्रतिमा !!!
पूरा का पूरा शिव परिवार ,पूरा का पूरा शिव दरबार
साक्षात शिव के दर्शन ! यह दर्शन आंखों ने नहीं आत्मा ने किया ।
साक्षात परमात्मा का दर्शन !हम हाथ जोडे खडे रहे ।रोम-रोम कहता रहा-जन्म सफल हो गया प्रभु ,जन्म सफल हो गया !!हमारे एक साथी जो चौथी बार इस यात्रा पर आए थे।रो पडे—झर झर आंसुओं के साथ !उन्हें पहली बार ऐसा दर्शन प्राप्त हुआ था ,उनके मन की थाह तो शिव ही लगा पाए होंगे। अब हमने इधर उधर नजरें दौडाईं।कबूतरों का जोडा दीख पडा। पर्वत की पथरीली दीवार पर बने कोटरों में बैठते इधर से उधर उडते,चहकते आंखें धन्य हो गईं।कबूतरों के अलावा हमें भूरे रंग का पर्वतीय चूहा भी नजर आया जो आकार में खरगोश से दुगुना रहा होगा ।सीटी सी अवाज निकालता इस दीवार से उस दीवार पर तेजी से घूमता हुआ । 14000 फीट की ऊंचाई पर जहां वर्ष के दो महीने ही आबादी होती है,लोगों का आना जाना होता है,शेष 10 महीने बर्फ ही बर्फ रहती है कबूतरों और चूहों की उपस्थिति घोर आश्चर्य में डालती है ।कहां जाते होंगे ये बाबा बर्फानी के प्रस्थान के बाद ?कैसे रहते होंगे ?
क्या खाते होंगे?
गुफा में जहां शिवलिंग के दर्शन हुए ठीक उसके ऊपर पत्थर की एक आकृति -चित्रलिखित सी—गणेश की सांकेतिक आकृति --सूंड सी अंकित दीखी॥हमारे देवों में सबसे ऊंचा और प्रथम स्थान श्री गणेश का माना गया है ।यहां जहां प्राकृतिक संरचना होती है वहां भी प्रथम पूज्य श्री गणेश का उच्च सिंहासन !घोर आश्चर्य !
कुछ भी असत्य मानने को मन तैयार नहीं होता ।कुछ भी कृत्रिम नहीं सब कुछ प्राकृतिक ,नैसर्गिक,सत्य ।सत्यम शिवम सुन्दरम की अधारभूत संकल्पना परिभाषित होती है कण-कण में।गुफा के ठीक सामने विशाल पर्वत श्रंखला हैजिसका शिखर सात फ्नों वाले शेष नाग के आकार का है ,बीच मे एक विशाल फन ।मंदिर की ओर मुंह किए और अगल –बगल तीन तीन छोटे फन जैसे विशाल पर्वत की शक्ल में स्वयं शेष नाग शिव के सम्मुख उनकी सेवा में तत्पर खडे हों।पूरे पर्वत पर सर्प की धारीधार आकृति जैसे लिपटे हुए सर्प ने पत्थर का रूप ले लिया हो ।यहां से वहां तक कोई बनावट नहीं ,एकदम स्पष्ट और साकार छवि ।गुफा से अमर गंगा का जल प्रसाद स्वरूप लेकर हम लौट चले,उस पवित्र गुफा की माटी को माथे से लगाकर।
हल्के भोजन के बाद हमारी वापसी यात्रा शुरु हो गई ।मन में अपार हर्ष और संतोषप्रद रोमांच लिए हम लौट चले ।अमरनाथ से बाल टाल तक की उतरती राह जितना नजरों को बांधती उतना ही पांवों को सम्भलने की हिदायत देती रहती है।
नजारे हर तरफ अनोखे और आश्चर्य चकित कर देने वाले ।कहीं कहीं जटा-जूट खोले शिव की ध्यानमग्न छवि का आभास होता जो संध्या की बेला में बडा ही अनूठा लगता ।कहीं नजरों को छोटे-छोटे देवगणों की शक्ल के पत्थर दीख पडते ।कहा भी गया है मानों तो देव नहीं तो पत्थर ! नजरें जब शिवमय हो गईं तो हर तरफ शिव के नजारे ही नजारे ॥बाल टाल तक की दूरी 16 किलोमीटर की है ।इस राह में कई सीधी चढाई और तीखे उतार एवं खतरनाक मोड मिले ।पांव बहुत सम्भालकर रखने होते हैं।कहीं कहीं तो बैठकर ,सरककर या रेंगकर उतरना पडा । कहीं कहीं रास्ता अत्यधिक संकरा और फिसलन भरा था ।लाठी टेकते हम एक एक पांव बढाते गए ।जगह –जगह पर हमारे सैनिक चौकन्ने खडे मिले ।एक सहयात्री ने बताया पिछली यात्रा के दौरान इन संकरे रास्तों पर ,जहां एक भी कदम गलत पडते ही आदमी हजारों फीट नीचे गिर सकता है,हमारे सैनिक कमर में रस्सी बांधकर लम्बी कतार में खडे थे ।यात्री उन रस्सियों का सहारा लेकर धीरे-धीरे उतर पाए थे । वाह रे हमारे सैनिकों का अदम्य साहस और सदा सर्वदा मदद को तत्पर हाथ !
हल्की हल्की बारिश के कारण रास्ते फिसलन भरे हो गए थे,डगर कठिन हो गई थी । पग –पग पर सेना के जवानो ने हमारी हौसला आफजाई की ।उन्हें देखकर मन में साहस और स्फूर्ति का संचार होता ।धीरे-धीरे चलते हुए रात्रि के पहले प्रहर हम बाल टाल पहुंचे ।यहां भी लंगर की व्यवस्था थी ।रात्रि विश्राम के बाद सबेरे हम श्रीनगर की ओर लौट चले ।श्रीनगर-भगवान के श्री चरणों तले बसा नगर-स्वर्गिक सौंदर्य से भरा पूरा । चिनार देवदार की खूबसूरत छटा निहारते और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का आंखें भर भरकर दीदार करते झेलम के किनारे किनारे हम सोनमर्ग के रास्ते श्रीनगर पहुंचे।शाम हमारी डल झील में शिकारे पर सैर करते हुए बीती ।मन ही मन फिर आने का संकल्प कर हम सबेरे की गाडी से जम्मू आ गए यहीं से हमारी वापसी का टिकट था ।
वापस आने के लगभग सात –आठ दिनों के बाद ही अखबार में खबर आई बाबा बर्फानी अन्तर्ध्यान हो गए । हेलिकाप्टरों की आवाजाही और यात्रियों की सांसों की गरमी से पिघल कर वापस लौट गए ।
फिर आना प्रभु !हमारे जैसे लाखों यात्रियों को दर्शन देने । अपने इस असार संसार पर अपनी कृपा दृष्टि डालने ।
ओम नम: शिवाय !
Sanjayji,nice write-up on Amarnath yatra.I also enjoyed it on 5th August 2005.But i routed by shortest way-Songarh base camp.Everybody in his life should visit this holy place if will is there.Dhanyawad.
ReplyDeleteRajeshji,sorry for Sanjayji.
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