हम सभी जानते हैं श्री कृष्ण के गरूड्ध्वज रथ में जुते चार दुग्ध धवल अश्वों के नाम—क्रमश: शैव्य,सुग्रीव,मेघपुष्प और बलाहक थे।मेघपुष्प अपने नाम के अनुरूप ही धवल मेघों के पुष्पगुच्छ सा मोहक एवं आकर्षक था।परन्तु यहां मेघपुष्प किसी अश्व का नहीं एक कबूतर का नाम है…।
मैं अपने भाई बहनों एवं माता पिता सहित शहर के एक हिस्से में रहती थी। हमारा मकान कहने को तो शहर में ही था,पर था आबादी से अलग-थलग।मकान पुराने डिजाईन का था।बीच में बडा –सा आंगन,चारों तरफ से कमरों,बरामदों ,गलियारों से घिरा।बाहर से आने पर दो-चार सीढियां उतरते ही पहले आंगन मिलता।
तब मैं कालेज में पढती थी।एक दिन शाम को लौटकर घर आई तो पिताजी आंगन में बैठे थे।उतरती शाम के संधि प्रकाश में उनका चेहरा खिला-खिला सा लगा।मुझे देखते ही बोले-“देखो लडकी,मेघपुष्प।“मैंने देखा –एक सुन्दर,सफेद,नितांत स्वच्छ धवल कबूतर उनकी कुर्सी के ठीक पास में गेहूं के दाने चुग रहा था।बहुत ही प्यारा,बिल्कुल निर्दोष,बेहद खूबसूरत पंखों वाला।मैंने धीरे से बैठकर पुचकारा,तो वह डर गया।फुदक-कर जरा दूर खिसक लिया।फिर अपनी ग्रीवा घुमाकर उसने मुझे कोमल नजरों से देखा।मैं मनोविज्ञान की छात्रा कभी नहीं रही।रहती भी तो एक पक्षी के नयनों की भाषा तो नहीं ही पढ पाती।परन्तु उसकी नजरें बडी आत्मीय लगीं।मैंने कहा-:पापा,यह तो कमल नयन भी है !पिताजी हंसने लगे।
मैं भी वहीं पालथी मार कर बैठ गई। हमारा कालेज घर से दूर था। आने-जाने में घंटा भर लग जाता था। हम पैदल ही आते-जाते थे। तब हम बात-बेबात सवारियां नहीं लिया करते थे। यूं कहें कि जरूरत ही नहीं महसूस होती थी। न हाथों में ज्यादा पैसे ही हुआ करते थे।थोडा थक तो जाती ही थी। ठंढे पक्के आंगन में ऐसे बैठने में आराम –सा लगता था।अब मैने पूछा—“यह कहां से आ गया ?” तो पिताजी उत्फुल्ल होकर बताने लगे,जब मैं आफिस से आया,यह बाहर सीढियों पर था। मैंने पुचकारकर हाथ बढाया,तो सीधे पास चला आया। लगता है-पुरानी जान-पहचान है हमारी।मैंने कहा-“हां-हां,क्यों नहीं ?जान गया होगा कि आफिस से लौटते कुछ –न-कुछ लाये ही होंगे !
तभी मां प्लेट में पकौडियां ले आई।मैं पकौडियां खाने लगी।तब तक मेघपुष्प का दाना भी खत्म हो गया था।मैं उठकर और दाने लाने चली गई। बरामदे के एक कोने में मिट्टी के दो छोटे बर्तन हमेशा रखे होते थे।मां जब भी चावल पकाने जाती,एक मुट्ठी चावल निकालकर एक बर्तन में रख देती। दो-चार दिन बीचकर कोई-न-कोई भिखारी दरवाजे तक आ ही जाता। ये चावल उसे ही देने के काम आते। दूसरे बर्तन में गेहूं के टूटे दाने होते थे।जब भी गेहूं पिसवाने के लिए मां फटकने बैठती,टूटे छोटे दानों को उठाकर इसी बर्तन में रख देती। ये दाने तो बस चिडियों के लिए ही होते॥
मैं एक मुट्ठी चावल निकाल ही रही थी कि पिताजी बोले-“यह चावल नहीं खाएगा,इसे गेहूं के दाने दो।“मैंने आश्चर्य से पिताजी और मेघपुष्प दोनों को देखा। फिर बिना किसी सवाल जबाब के गेहूं लाकर बिखेर दी। मेघपुष्प चुगने लगा। चाय पीकर पिताजी उठे। उन्हें इसके लिए रात्रि विश्राम की व्यवस्था करनी थी। उन्होंने एक पुराने मिट्टी के घडे को बीच से फोडकर दरबा बनाया।बाथरूम के दरवाजे के ऊपर मुंडेर के नीचे भली प्रकार से टांग दिया। थोडे घास-फूस बिछाकर बडे जतन से उठाकर उसे उसमें बिठा आए। दीवार पर टंगा यह बसेरा आठ –नौ फीट की ऊंचाई पर था।मैंने अंदेशा जताया—बिल्ली चढ गई तो ? लेकिन ऊपर से छत की मुंडेर जरा चौडी थी। न तो ऊपर की तरफ से,न ही जमीन की तरफ से,दोनों ही ओर से बिल्ली की पहुंच से दूर था,उसका यह नया-नवेला घर।
हम निश्चिंत हुए…॥
रोज सबेरे मेघपुष्प आंगन में आता,मुट्ठी भर दाना खाता,फिर जाने किस दिशा में उड जाता।शाम होते ही वापस लौट आता।थोडी देर आंगन में इधर-उधर घूमता और बिखरे अन्न कणों को चुगता। आंगन के एक कोने में बेली का पुराना झाडीनुमा पौधा उगा हुआ है, जो बरसों से परिवार के एक सदस्य की तरह है।उसकी जडों के पास चीनी मिट्टी के बर्तन में पानी रखा होता।मेघपुष्प पानी पीता और उडकर अपने बसेरे में जा बैठता।
दो तीन दिन ही बीते होंगे कि हमने देखा—आंगन में तीन कबूतर उतरे हुए हैं। अच्छा लगा। तो महाशय ! अपने दोस्तों को भी बुला लाए महीना भर होते-न-होते आंगन में नौ-दस कबूतरों की टोली जमा होने लगी। मिट्टी के चार-पांच घडे दीवार पर टंग गए। खूब सबेरे से ही आंगन में गुटर-गूं-गुटर-गूं की धूम मचने लगी।
मां गेहूं धोकर सूखने को डालती,तो सभी जाने कहां से आ-आकर टूट पडते। मां खीझ उठती। पर पिताजी हंसते हुए कहते-तुमने दिया नहीं होगा खाने को,तो क्या करेंगे?हम सब हंस देते।
एक दिन कुछ आवश्यक काम से पिताजी को शहर से बाहर जाना पडा। जाते-जाते छोटे भाई को ताकीद कर गए-कबूतरों का ध्यान रखना।बारिश के दिन हैं,उनके दरबों में पानी न घुसे।
रात हुई।सोने से पहले छोटा भाई बांस की सीढी लेकर निगरानी कर आया। छत की मुंडेर पर एक लम्बा प्लास्टिक का परदा डाल आया,जिससे पानी का छींटा भी अंदर न जा सके। हम सब निश्चिंत होकर सोए।
रात भर बारिश होती रही। कच्ची छतों वाले मकान में बारिश का शोर बाकी किसी भी आवाज को सुनने नहीं देता। हम बेसुध होकर सोए रहे। रोज सबेरे सबसे पहले उठने वाले पिताजी तो थे नहीं ! हम देर तक सोए रहे। मानों सबेरा ही देर से हुआ हो।
अचानक मां की हाय- तौबा सुनकर मैं हड्बडाकर उठ बैठी। दरवाजा खोलते ही जो नजारा दीखा—दिल धक्क से रह गया। मेरे कमरे के दरवाजे के पास ,एकदम पास ढेरों सफेद पंख गिरे हुए और थोडी ही दूरी पर रक्त की कुछ बूंदें !!!
क्षणांश में ही सारी बातें समझ में आ गईं ।
ये पंख मेघपुष्प के ही थे! सफेद-बेदाग !!एक निरीह पंछी के !!!मूक-बेजुबान-प्राणी के !!!!
रात बिल्ली का आक्रमण हुआ होगा ।पिताजी का कमरा कबूतरों के दरबे के बिल्कुल सामने था,लेकिन इन अबोध प्राणियों को पता था कि आज वे घर पर नहीं हैं।लम्बी दूरी तय कर ,अपने बचाव के लिए व्याकुल होकर ,बारिश में भींगते,रात के अंधेरे में बाध्य होकर, उडकर मेरे कमरे तक आने वाले नन्हे प्राणियों के पंखों की फडफडाहट तक मैं न सुन पाई।दुश्मन बारिश की बूंदों ने कुछ भी सुनने नहीं दिया।इनकी कातर पुकार का तो आभास भी नहीं मिला।काश ! आज दरवाजा ही खुला छूट गया होता !!मैं एक अपराधबोध में डूबी जारही थी।इन्होंने मुझे ही पुकारा,और भी तो लोग थे घर में,मेरे ही द्वार तक आए।क्यों।?
मैं बेखबर सोई रही।प्राणभय से बंद दरवाजों तक आए निरीह प्राणी बारिश में जाने किधर-किधर भटकते फिरे होंगे,कहां छुपकर अपनी जान बचाए होंगे !हमारे मेघपुष्प का हाल तो आंखों के सामने ही था।यूं ही काल के गाल में समा गया !!
अब हमारा ध्यान उनके दरबों की तरफ गया…अखिर चूक हुई कैसे ?
बारिश से बचाव का उपाय करने के बाद सीढी को वहां से हटाने का ख्याल किसी को नहीं रहा।मौत उसी सीढी से होकर उन तक पहुंच गई
जो उनकी हिफ़ाजत के लिए रखी गई थी ।बचपन में पढी कहानी याद आ गई “रक्षा में हत्या”। यह तो बिल्कुल उसी की पुनरावृति हो गई।
सबकी आंखें नम हो आईं।सब मन ही मन सोचते रहे कि पिताजी क्या कहेंगे।?दोपहर को ही वे वापस आ गए।सबकी असामान्य सी चुप्पी पर उन्होंने गौर भी किया होगा पर बोले कुछ नहीं।
शाम होते होते कई कबूतर जिनकी जानें बच गई थीं,आंगन में आ गए।उनकी गुटर-गूं गूंजने लगी।बस,मेघपुष्प नहीं आया।पिताजी की नजरें यहां से वहां तक खोजती रहीं…किसे ?सभी समझ रहे थे,पर किसी ने कुछ भी चर्चा नहीं की।मेरी सबसे छोटी बहन स्कूल से आते ही दौडकर उनकी गोद में चढ गई और अपनी तोतली बोली में जितना जान समझ सकी थी……कहानी सुनाने लगी।
वह दिन और आज का दिन।फिर हमने कभी किसी भी पंक्षी को पालने की हिम्मत नहीं की।बरसों बीत गए।एक बार मेरी बेटी जिद्द कर बैठी—“नानाजी,हमें तोता मंगा दीजिए”।तब पिताजी ने इतना ही कहा-:नहीं बेटा,अनबोलते पंक्षी को बांधकर नहीं रखना चाहिए !!
Comments-baad mein,thanks.
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