Tuesday, 12 August 2014
Monday, 11 August 2014
चांदी की छत
अद्भुत द्रश्य था वह।
पहली दफा अमरनाथ की यात्रा से लौटी तो एक सहयोगी ने पूछा चांदी की छत देखी या नहीं ।मैं ने कहा- नहीं तो,कहां ? फिर मुझे जो जानकारी मिली उसे मैंने मन के कोने में छुपा कर रख लिया ।
कभी न कभी अवसर जरूर आयेगा । अवसर आया ,हम फिर अमरनाथ की यात्रा पर गये ।हम पैदल ही चले ।घोडे की सवारी से मुझे डर लगता है क्योंकि पहाडी रास्ते हैं और घोडों को नदी की तरफ यानि राह के उस किनारे ही चलना होता है जिधर खुला होता है।पहाड की तरफ से पैदल चलने वाले चलते हैं।खुला यानि हजारों फीट की गहराई ।बहती हुई बर्फीली नदी पथरीली
--–दूसरे शब्दों में महाप्रयाण और क्या !!
तीन दिन की कठिन यात्रा रास्ते की खूबसूरती और हिमालय के परम सौंदर्य के कारण अत्यंत रोचक और मनोरम हो जाती है। उसपर से लंगरों की अद्भुत व्यवस्था ।हजारों की तादाद में यात्री जयघोष के साथ यात्रा करते।हैं॥ नदी झरने ऊबड खाबड पथरीली राहें॥कभी तेज धूप कभी झमझम बारिश। अपनी इच्छाशक्ति ही होती है जो पांवों को चलने की ताकत देती है वरना हमलोगों की दिनचर्या ने हमें कहीं का नहीं छोडा है।आरामतलब हो गए हैं हम ।
खैर मन के कोने से झांक झांक कर वह इच्छा मुझे बेचैन कर रही थी । आखिर हमलोग दिनभर की चढाई के बाद देर रात शेषनाग पहुंचे।बर्फीली हवा चल रही थी हाथ पांव सुन्न से थे ।थकान के मारे बुरा हाल था ।गीली मिट्टी में बनाए गये तंबू । हमने डेरा डाला ।बिछाए गए बिस्तर भींगे भींगे लग रहे थे।रजाई जो ओढने को मिली वह भी गीली लग रही थी।पहने हुए वस्त्र तो गीले थे ही।मारे ठंढ के हम कंपकंपा रहे थे ।थोडी ही देर में तंबू वाले ने आकर ढिबरी जो रौशनी के लिए जलाकर रखा था,बुझा दिया ।अब घटाटोप अंधेरा भी हो गया ।
मैं अपनी रजाई में दुबकी चांदी की छत देखने की लालसा लिए जागती रही । आधी रात होने को आई ।धीरे धीरे त्रिपाल के महीन छिद्रों से बाहर की रौशनी दिखाई देने लगी ।जो तेज होती गयी ।
मैंने समझ लिया चंद्रमा ठीक सर पर आ गया ।धड्कन तेज हो चली ॥
एक पल को रोमांच हो आया ।मन में ख्याल आया कि हम शिवजी के दर्शन को जा रहे । चंद्रमा तो उनके शीश पर हैं !! जै भोले नाथ ॥ तुम यहीं कहीं हो ना !! भीतर कहीं शक्ति का संचार हुआ , भक्ति का भी ॥
थोडा समय और गुजरा ।रौशनी और प्रखर हुई ।मैं आहिस्ते से उठी ।टटोलकर पांव रखते कि किसी सहयात्री पर चढ न जाऊं ,बाहर निकलने की कोशिश करने लगी । हालांकि साथ में टौर्च भी था पर उसकी रौशनी से किसी की नींद न खराब हो इसलिए उसे रहने दिया ।
जैसे ही बाहर निकली सर्द हवा के एक झोंके ने जैसे जमा ही दिया। एकबारगी थरथरा गयी देह॥ लेकिन आंखों ने जो देखा उसे मैं कागज के इस टुकडे पर हर्गिज हर्गिज नहीं लिख सकती।यह जगह काफी ऊंचाई पर थी ॥आसमान ठीक सर के ऊपर था ॥समूची बर्फ चांदी में तब्दील हो गयी हो। जैसे हम एक विशाल रुपहले छत के नीचे हों ॥ ऐसा जान पडता था हाथ बढाकर छू लेंगे।पांव रखा तो फिसल जाएंगे ॥चारों तरफ चांदी की चमकीली जगमग ॥बर्फ पर गिरकर चांद की रौशनी अद्भुत छटा बिखेर रही थी॥ अजीब से एहसास से भर गया मन ।
आंखें चुंधियाई हुईं । मन आह्लादित । स्वर्ग का नजारा ॥ अब और स्वर्ग किसे कहते होंगे पता नहीं ॥ हर तरफ रौशनी की सरिता सी बह रही ।पलकें भूल गयीं झपकना ।
ठंढ से टांगें जब सुन्न हो गईं ।,किसी तरह शरीर को ढकेलकर तंबू में आई। सीधी रजाई के भीतर नाक मुंह ढककर सो गई।मन ही मन उन सहोयोगी को धन्यवाद कहा जिनके कहे मुताबिक आज मैंने यह अद्भुत नजारा देखा ।वरना ठंढ तो एक पल को भी बाहर निकलने की इजाजत नहीं देती।
आगे की यात्रा करते हुए तीसरे दिन हमने अमरनाथ के दर्शन किए ।साष्टांग नमन और करबद्ध धन्यवाद करके दिल में परम संतुष्टि का भाव लिये हम वापस आ गए ।
किसी ने सही कहा है कोई भी कैमरा उन चित्रों को नहीं उतार सकता जिन्हें आंखें कैद कर रख लेती हैं ।।
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