भाई का फोन आया ,एकदम भूल जाती हो ? आओ किसी दिन समय
निकालकर।
क्यों ? कोई खास बात.?भाई बोला—आजकल पिताजी ठीक से खाते नहीं ,माँ चिंतित रहती हैं । पूछो तो कुछ बताते भी
नहीं ।मन में कोई शिकायत लिए बैठे हैं शायद.।
अब जब तक कहेंगे नहीं हम कैसे समझें, बोलो.?माँ से कहाँ
दिया है..नहीं खाते तो न खाएं ,देखो कितने दिन रूठे रहते हैं.! अब कोई बच्चे तो
हैं नहीं कि मनाया जाए..।
तुम्हीं हो सबसे दुलारी आकर पूछो ।स्वर में चिंता उलाहना सब
एक साथ ।
मुझे अच्छी नहीं लगी उसकी बात । क्यों भला.? मान लो नाराज
ही हों तो क्यों नहीं मना सकते हम ! क्या इसलिए कि वे बड़े हैं...?बुढापा बचपन को
लौटा लाता है।
बच्चों जैसे हो जाते हैं मनोभाव बुजुर्गों के । उन्हें मान
सम्मान के साथ साथ प्यार दुलार की भी जरूरत होती है ।कभी उन्हें बहला फुसला कर तो
देखो।
अगले ही दिन मैं पहुँच गई मिलने। सबेरे नाश्ते में बेटे के
लिए हलवा बना रही थी तो
सोचा पिताजी के लिए भी ले लूँ ।एक टिफिन में थोड़ा लेती गई ।
पिताजी को प्रणाम किया तो हँसने लगे—आज कैसे फुर्सत मिली तुझे ?
मैंने कहा-हलवा बना रही थी तो आपकी याद आई। देखिये तो कैसा
बना? फिर रसोई से एक प्लेट लेती आई ।पिताजी ने खाना शुरु किया । चखने से पहले ही
बोले—बहुत अच्छा बना है
।मैंने कहा-पहले चख कर तो देखिए.!
मैंने गौर से देखा ,पिताजी बहुत धीरे-धीरे मुँह चला
रहे..मैंने पूछ लिया—
कोई तकलीफ़ है क्या पापा ?दांतों में दर्द है?
पर हलवा खाने में तो दर्द नहीं होना चाहिए !उन्होंने कुछ
जबाब नहीं दिया , पर मैंने उनके चेहरे पर दर्द की झलक देख ली ।जब वे अपने कमरे में
गए मैं पीछे पीछे चली आई। कहा—देखूँ तो किस दाँत में दर्द है?एक नन्हे बच्चे की तरह मुँह खोलकर दिखाया
उन्होंने।देखकर सिहर गई मैं । नीचे का एक दांत सुई के जैसा नुकीला हो गया था वही
ऊपर के मसूड़े को बेध रहा था, मैंने घबराकर पूछा-डॉक्टर को दिखाया क्यों नहीं ?वे
हडबडा गए—नहीं नहीं हल्ला
मत मचाना.। पर क्यूँ पापा ? इतनी तकलीफ है
आपको ! तभी आप ठीक से खाना भी नहीं खाते ।मेरी आंखें भर आईं ।
वे भी रुंआसे हो गए । एक क्षण को लगा मैं उनकी माँ होऊँ और
वो मेरे जाए ।मैं उनके सिरहाने बैठ गई ।मैं जानती थी.पापा को इंजेक्शन से डर लगता
है। डर हम सभी को लगता है पर उनके जितना डरते किसी को नहीं देखा। बिल्कुल काँपने
लगते । जब तक कंपाउंडर बैठे रहते, वे कहीं जाकर छुप जाते।
हर दिन हमलोगों ने यही प्रार्थना की कि इनकी तबियत खराब न
हो।पर शरीर तो मशीन है कुछ न कुछ खराबियाँ होती ही रहती हैं।
समझ गई कि इसी डर से पापा किसी को बता नहीं रहे ,चुपचाप सह
रहे हैं।
पर ऐसे कैसे चलेगा ?मैंने घर में बात की और अपने एक परिचित
डॉक़्टर के पास ले गई ।एक सप्ताह में ही आराम हो गया और पिताजी ठीक से खाने पीने
लगे।
अब सोचती हूँ एक पतली सी लकीर होती है सकारात्मक और
नकारात्मक सोच के बीच। बात को सही सही समझना हो तो ,जरा सा अपने नजरिए में फर्क
लाकर समझा जा सकता है ।ऐसा अक्सर होता है हम तुरंत सामने वाले को गलत ठहरा देते
हैं ,जबकि कई बार मामला कुछ और ही होता है ।
एक साल का भतीजा जार बेजार रो रहा था ,मैंने जानना चाहा
क्या हुआ तो भाई बोला इसके पेट में दर्द है ।मैंने पूछ लिया—तुमने कैसे जाना???इसने
कहा क्या तुमसे ?
मुझसे दो वर्ष छोटा भाई मेरे सवाल में छुपे भाव को हू-ब-हू
समझ गया ।
उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था शायद ।हमारे बुजुर्ग माँ
बाप हमारे अबोध बच्चों जैसे ही तो हैं !!!बेहद बेहद प्यार दुलार के हकदार..॥